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चौपाल अकेली / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
जवान सूखे गाछ पर
बैठी है सोनचिड़ी
सूखे बूढ़े पीपल पर
बैठा है मोर बिन बोले
पथराई आंख से देखता टुकुर-टुकुर ।
गाँव के किसी झूंपे से
दो वक़्त क्यों नहीं उठता धुआँ
सोचता है चौपाल पर बैठा
मुड़दिया काला कुत्ता
‘तू-तू’ की आस में
ऊँघता तक नहीं ।
चौपाल उडीकती
सो जाती है अकेली
नहीं निकलता
किसी घर से
लाठी टेकता कोई
हताई को खँखारता डोकरा ।