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चौराहे पर ज़िंदगी तीन / रजनी अनुरागी

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तीन

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मुड़े तुड़े पुराने भगोने से चेहरे में
धँसी सूनी आँखें लिए
गहराती झुर्रियाँ और अधपके बाल लिए
सड़ी जिन्दगी को क़तरा क़तरा जीतीं
गठरी बनी रक्तरंजित औरतें

न जाने कहाँ से उठाकर लाई गई होंगी
छूटते बचपन में
सफेदपोश मर्दों की मार खाई
टूटी-सताई खूब चबाई औरतें
और उम्र की ढलती साँझ में
फुटपाथ पर पीक सी थूक दी गईं

कैसे कहा जाए कि अब भी बाकी है
उनके भीतर कोई स्पंदित औरत