चौरी करत कान्ह धरि पाए / सूरदास
राग धनाश्री
चौरी करत कान्ह धरि पाए ।
निसि-बासर मोहि बहुत सतायौ, अब हरि हाथहिं आए ॥
माखन-दधि मेरौ सब खायौ, बहुत अचगरी कीन्ही ।
अब तौ घात परे हौ लालन, तुम्हें भलैं मैं चीन्ही ॥
दोउ भुज पकरि कह्यौ, कहँ जैहौ,माखन लेउँ मँगाइ।
तेरी सौं मैं नैकुँ न खायौ, सखा गए सब खाइ ॥
मुख तन चितै, बिहँसि हरि दीन्हौ, रिस तब गई बुझाइ ।
लियौ स्याम उर लाइ ग्वालिनी, सूरदास बलि जाइ ॥
भावार्थ :-- (गोपीने) चोरी करते कन्हाई को पकड़ लिया (बोली-) श्याम! रात दिन तुमने मुझे बहुत तंग किया, अब (मेरी) पकड़ में आये हो । मेरा सारा मक्खन और दही तुमने खा लिया, बहुत ऊधम किया किंतु लाल! अब तो मेरे चंगुल में पड़ गये हो, तुम्हें मैं भली प्रकार पहचानती हूँ (कि तुम कैसे चतुर हो)" (श्याम के) दोनों हाथ पकड़कर उसने कहा -`बताओ, (अब भागकर) कहाँ जाओगे? मैं सारा मक्खन (यशोदा जी से) मँगा लूँगी ।'(तब श्यामसुन्दर बोले-) `तेरी शपथ ! मेंने थोड़ा भी नहीं खाया, सखा ही सब खा गये।'उसके मुख की ओर देखकर मोहन हँस पड़े, इससे उसका सब क्रोध शान्त हो गया । उस गोपी ने श्यामसुन्दर को हृदयसे लगा लिया । इस शोभा (तथा चतुरता) पर सूरदास बलिहारी जाता है ।