भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चौसठ / प्रमोद कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
दूर कठैई
उजळतो हुसी सबद
म्हारी पोथ्यां मांय तो अंधारो है
-कारो है
दो जहान रो किस्यो बिरम ग्यान है
पण पछै भी सोचूं
अै सबद ई म्हारा प्राण है
खुद रै प्राणां सूं अणजाण क्यूं रैवूं
जदकै सबदां रो ई
-सा'रो है।