चौहूँ भाग बाग वन मानहुं सघन घन,
शोभा की सी शाला हंसमाला सी सरितवर।
ऊँची-ऊँची अटनि पताका अति ऊँची-ऊँची,
कौशिक की कीन्हीं गंग खेलै खे तरलतर।
आपने सुखन निन्दत नरिन्दनि को,
घर देखियत देवता सी नारि नर।
केशवदास त्रास जहाँ केवल अदृष्ट ही की,
वारिए नगर और ओड़छे नगर पर।