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छंद 102 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(विभ्रमहाव-वर्णन)

ए नहिँ वाके उरोज लसैं, कत श्रीफल के फल झूँमि-झपेटत।
त्यौं ‘द्विजदेव’ जू नाँहक ही, मुख-भोरैं घने अरबिंद-धुरेटत॥
सो तड़िता-सी मिलैगी तुम्हैं, कितन लाजन आपनौं स्वाँग समेटत।
स्याम! प्रबीन कहाइ कहा तुम, फूल-छरीन भुजान सौं भेटत॥

भावार्थ: नायक को विरहावस्था में आकुलित देख कोई सखी परिहास से कहती है कि हे श्यामसुंदर! तुम तो बड़े चतुर कहाते हो किंतु तुम्हें अब इतना भी ज्ञान नहीं कि इन बिल्व के फलों पर झूमते हुए हाथ डालते हो। अरे! ये तुम्हारी प्यारी के उरोज नहीं हैं? वैसे ही हे ब्राह्मणों के राजा! ज्ञानियों मंे अग्रगण्य! प्यारी के मुखारबिंद के धोखे फूले अरविंदों को क्यों धुरेटते अर्थात् हाथों से स्पर्श कर उसके पराग को फैलाते हो और फूल की झड़ियों को भी अपनी प्यारी मान (समझ) हाथों को बढ़ाए आलिंगन करते हो, वह बिजली-सी परम चंचल नायिका (इस प्रकार) तुम्हारे हस्तगत हो सकती है? तुम्हें लज्जा भी नहीं आती जो सर्व साधारण के सामने ऐसे-ऐसे स्वाँग बनाते हो, अब तो इनको समेट धरो।