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छंद 112 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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सुंदरी सवैया
(प्रथम प्रेम-दशा अथवा विभ्रम व स्तंभ हाव-वर्णन)

बिथुरैं घनीं धारैं परीं छिति पैं, तिन्हैं देखति हूँ नहिँ ए कछु भीती।
उत स्यामैं लगी जक दौंहन की, इत राधिका मानौं चितेरन-चीती॥
‘द्विजदेव’ नए-नए नेह के फंद, तिन्हैं घरी-चारक यौं हीं बितीती।
हरि हारे जऊ दुही गाइ तऊ, रही मौंहनी के कर दौंहनी रीती॥

भावार्थ: गौ-दोहन के समय परस्पर प्रथम दर्शन होते ही ‘स्तंभ सात्त्विक भाव’ प्रिया-प्रीतम को हो गया, जिससे कि दोहनी छोड़ पयाधर पृथ्वी में गिर रही हैं। इस तरह से दोहन की जक भगवान को लगी है किंतु दृष्टि प्यारी पर गड़ी है, उधर राधिका जड़वत ऐसी खड़ी कृष्णचंद्र को देख रही हैं मानो चित्रकार ने कोई चित्र बना दिया हो। ऐसे नए-नए नेह के फंदे में चार घड़ी बीत गईं और गौ दुहते-दुहते गोपाल भी थक गए किंतु दोहनी अर्थात् दुहने का बरतन खाली-का-खाली ही रहा।