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छंद 115 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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रूप घनाक्षरी
(परकीया प्रवत्स्यत्पतिका नायिका-वर्णन)


मंद गंध-बाहक सुधा के अवगाहक की, अगिनि-अवास-सी अपूरब भई है गति।
‘द्विजदेव’ तेई फूल दुखद भए हैं अब, जिनहिँ बिलोकि हिय होती ही कछूक रति॥
अलज-अकूर की सु ऐसी बिपरीति-रीति, बार-बार बावरी बिचारति कहा है अति।
जाके इत आवत हमारे पिय-पीतम की, सारे ब्रजमंडल की पलटि गई है मति॥

भावार्थ: अरी बावरी सखी! आज निपट निर्लज्ज ‘अक्रूर’ को अपने नाम के विपरीत आचरण करते देख सारे व्रजमंडल की दशा विपरीत हो गई है तो हमारे प्राणप्रिय क मति पलट जाने और प्रस्थान का संकल्प करने में क्या विचित्रता है, क्योंकि जब तू प्रत्यक्ष देखती है कि वही शीतल, मंद, सुगंधित समीर, जो सुधा-सा सरल लगता था, आज अग्नि-सा जलाए देता है और जो फूल प्रमोद के हेतु होते थे वे काँटे-से दुःखद जान पड़ते हैं।