छंद 118 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(रूपगर्विता नायिका-वर्णन)
मंद-भए दीपक बिलोकि क्यौं अनंद होते, भोरैं चारु चंद के चकोर-चित-चोखे तैं।
होती समताई दिखावरन के भाँखैं कब, चिंतामनि-आरसी की आनन-अनोखे तैं॥
‘द्विजदेव’ की सौं एतौ हो तो उपहास कब, मानसर हूँ के अरबिंद-अति-ओखे तैं।
आलिग के संग दीपमाली के बिलोकिबे कों, औझकि उझकि जोन झाँकती झरोखे तैं॥
भावार्थ: हे सखी! आज मैं संयोगवश सखियों समेत दीपमालिका की शोभा देखने को अचानक उझककर झरोखे से न देखती तो मेरी द्युति से दीपकों को मंद होते देखकर बेचारे चकोर चंद्रमा के भ्रम से काहे को चहचहाते और देखनेवाले लोग काहे को मेरे मुख की समता ‘चिंतामणि’ की (जो एक पाषाण भेद है) आरसी (आरसी का अर्थ आलस्ययुक्त है) से करते तथा मानसरोवर के कमलों (जो रात्रि में मुदित होते हैं) को देखकर मेरे मुख का इतना उपहास क्यों करते।