छंद 120 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(मध्याधीरा नायिका-वर्णन)
छबि ज्यौं चहुँघाँ तन-पातन की, लगे तैसेई कंटक-जाल घने।
बिकस्यौ बर-गात प्रभात-समैं, हरि आवत या बिधि सोभ-सने॥
‘द्विजदेव’ लख्यौ जब तैं तब तैं, इन नैन-मलिंदन ठीक ठने।
सखि! भूलि हुती अपनी अब-लौं, ब्रजराज गुलाब से आज बने॥
भावार्थ: हे सखी! अब तक अपनी ही भूल रही, परंतु आज प्रातःकाल कृष्ण भगवान् की अपूर्व बनक (शोभा) देख मेरे नेत्ररूपी भौंरों ने यही निश्चय किया कि ‘व्रजराज’ गुलाब से प्रत्यक्ष खिल रहे हैं। इससे कि जैसे इनके अंग में पातन (गिरने अर्थात् शैथिल्य) की अनोखी छवि है वैसे ही कंटक (रोमांच और काँटा) जाल की निराली छटा (गुलाब में भी) छा रही है। जैसे प्रभात में गुलाब के फूल की पँखुरी खिली होती है वैसे ही इनके भी अंग-प्रत्यंग ढीले हो रहे हैं।