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छंद 128 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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  मत्तगयंद सवैया
(परकीया-वर्णन)

एक हीं बार अयानपने महँ, ह्वै गयौ सो जु हुतो कछु हौनौं।
ताहू पैं वा विष-बेलि-सी मूरति, नाहँक पाइ परौ फिरि रौनौं॥
बूझती बार-हिँ-बार तुम्हैं, ‘द्विजदेव’ कहौ न अहो! दृग दौनौं।
पाबक-पुंज पियौई हुतो, फिरि चाख्यौ कहा हरि-रूप-सलौनौं॥

भावार्थ: अरे नेत्रो! मैं बारंबार तुमसे पूछती हूँ कि एक ही बार जो कुछ धोखा हुआ सो हुआ, बारंबार वही काम क्यों किया? और यदि किया तो उसका फल भोगो, अर्थात् एक ही बार जो धोखे से चित्र-दर्शन हो गया था उसी समय तुमको यह विचारना चाहिए था कि चित्र प्रायः अनुमान से भी बनाए जाते हैं कदाचित् यह भी वैसा ही हो, किंतु ऐससा विश्वास न करके तुमने उसका प्रत्यक्ष दर्शन किया; अतः मैं तुमसे पूछती हूँ कि जब अग्नि-पुंजरूपी विरह पी चुके थे तब फिर सलोने रूप को क्यों चखा, अर्थात् यह नहीं समझे कि जले पर नमक लगने से कैसा दुःख होगा।