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छंद 133 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(मुग्धा नायिका-वर्णन)

कौंन कौ प्रान हरैं हम यौं, दृग कानन-लागि मतौ चँ हैं बूझन।
त्यौं कछु आपुस ही मैं उरोज, कसाकसी कै-कै चँहैं बढ़ि जूझन॥
ऐसे दुराज दुहूँ-बय के, सब ही कौं लग्यौ अब चौचँद सूझन।
लूटन लागी प्रभा कढ़ि कैं, बढ़ि केस छवान सौं लागे अरूझन॥

भावार्थ: कवि अपनी कविता के चमत्कार से ‘वयः संधि’ का रूपक दु-अमला से करता है, जैसे दु-अमले में लोग उच्छृंखलता करते हैं वैसे ही वयः संधि में अंगों की उच्छृंखलता दिखाकर ‘कवि’ अभिधामूलक व्यंग्य से उसका वर्णन करता है-कौन कौ प्रान हरैं हम यौं, दृग कानन लागि मतौ चहैं बूझन। किस बेचारे बटोही का प्राण ले के यह वन के किनारे बैठकर दृग सलाह करते हैं।