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छंद 135 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(विरह-निवेदन-वर्णन)

साँझ हीं सोइ रहै घर मैं, भरमैं सिगरे दिन दीह उसासन।
नींद औ भूख औ प्यास-तजी, बिपरीत भए सब आसन-बासन॥
प्रान-बिछोहन हूँ कोउ जीवति, जीवति-लोग कहैं तजि त्रासन।
मोहन जू! अब साँस नहीं, वह राखि रही तन केवल आसन॥

भावार्थ: हे मनमोहन! उस नायिका की तुम्हारे वियोग मंे यह दशा है कि दिन भर तो वह लंबी साँसें ले-लेकर इतस्ततः मारी-मारी फिरती है और सायंकाल ही से घर में आकर पड़ रहती है, क्योंकि उसको स्वाभाविक व्यवसायों में अरुचि सी हो रही है, निद्रा, क्षुधा और पिपासादि उसे कुछ भी नहीं लगते और असन-वसनादि भी विपरीत हो गए हैं अर्थात् उनका भी समय नियत नहीं रहा। भला जब प्राणप्यारे से वियोग हुआ तो प्राणरहित होकर भी कोई जी सकता है? जो लोग उसको जीवित कहते हैं वह केवल आपके भय से कि कदाचित् आपको अप्रिय वचन सुनकर दुःख होगा, पर अब स्वासा तो रही नहीं, केवल मिलन की आशा पर तन को धारण किए हुए है। इस प्राण शब्द में ‘साध्यवसाना लक्षणा’ है। प्राण अर्थात् प्राण-सम और प्राण शब्द में श्लेष भी है, यानी प्राणवायु व प्राणपति। दूति विरहिणी की दशम अवस्था का नायक से विदेश में वर्णन करती है।