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छंद 138 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(पुनः विरह-निवेदन-वर्णन)

धीर-धरै न मलैज-मलै, तन-ताप दुरै न पुरैनि के पातन।
त्यौं ‘द्विजदेव’ कपूर की धूरन, जाति न वाकी बिथा जल-जातनि॥
ऐसिऐ स्याम! सुनीं कुसलात हौं, छज्जेन-दज्जेन छातन-छातन।
बूढ़िन की अरु बारिन की, ब्रज की जुबतीन की बातन-बातन॥

भावार्थ: कोई अंतरंगिणी सखी, विदेश बसे नायक से उसकी प्रियतमा की कुशल यों कहती है कि आजकल आबालवृद्ध व्रज-वनिताएँ घरों के प्रत्येक भाग में जहाँ बैठती हैं वहाँ यही चर्चा करती हैं कि वियोग का ताप उस नायिका में ऐसा बढ़ा है कि अनेक उपचारों अर्थात् चंदनादि के लेप और पुरैनि के वायु और कमल के स्पर्श आदि से भी उसका शमन नहीं होता। मैंने तो यही कुशल सुना है, यानी दुःख की तो कोई सीमा बाकी ही नहीं रही, किंतु कुशल यही है कि वह अभी जीवित है।