छंद 148 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(मध्या नायिका-वर्णन)
साँझ समैं घर आए गुपाल सो जाम के अंतर ही रतिया मैं।
भारी बिनोदन सौं भभरी, ‘द्विजदेव’ जू जौ लौं रची बतिया मैं॥
काम की जोति जगी कछु बीच हीं, भूलि गई सिगरी घतिया मैं।
जैसी हुती रही वैसी धरी सखि! नेह-भरी बतियाँ छतिया मैं॥
भावार्थ: हे सखी! रात्रि का एक प्रहर भी न बीत पाया था कि श्रीकृष्ण भगवान् मेरे घर आए। मैं आनंदाधिक्य से कंपित हो जब तक स्वागतार्थ समुचित वचन-रचना करूँ इतने ही में काम की प्रबल अग्नि मेरे शरीर में भभक उठी और जितनी भी मेरी घात की बातें (चटुल-भाषण आदि) थीं सब भूल गई। निदान जितनी वह स्नेह (अनुराग व तैल) भरी बतियाँ (वार्त्ताएँ व बत्ती) छाती में थीं वे सब जैसी-की-तैसी ही थाती-सी धरी रह गईं अर्थात् उनके प्रकाश करने का अवसर ही न मिला।