भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छंद 14 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
Kavita Kosh से
(उक्त दोहा पूर्व कथन का संबंधकारी है)
या बिधि की सोभा निरखि, तन-मन गयौ भुलाइ।
बन मैं यह लीला-ललित, ता छिन प्रगटी आइ॥
भावार्थ: इसी तरह की अनेक शोभाएँ देखते-देखते मैं अर्थात् कवि, अत्यंत अचंभित हुआ! इतने ही में वन और भी यह ललित लीला प्रकट हुई, यानी महाराज ऋतुराज की ‘सवारी’ शृंखलाबद्ध आती दीख पड़ी।