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छंद 153 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(विश्रब्ध नवोढा नायिका-वर्णन)

राखत न काहू सों सनेह कछु सपने हूँ भाँषत न काहू सौं अनंद-उँमहनि मैं।
‘द्विजदेव’ की सौं खान-पान की बिसारी सुधि, हारी लोक-लाज एक वाही की रहनि मैं॥
साँची लगी दीठि मन-मोहिनी की मोहन पैं, याही तैं चके से चित-चाँही की चँहनि मैं।
नाँहीं के कहे तैं भए-नाँहीं-मय स्याम तब, ह्वै है कहा राम! बाम-बाँही की गहनि मैं।

भावार्थ: कोई अंतरंगिणी सखी किसी सखी से कहती है कि गत रात्रि में ‘प्रथम समागम’ के समय प्यारी के मुख से ‘नाँही’ शब्द सुन रीझकर भगवान श्यामसुंदर ‘नाँही-मय’ हो गए, यदि प्यारी परिरंभण को स्वीकार करती तो क्या दशा होती? कृष्ण स्नेह-बंधन से विमुक्त होकर किसी से स्वप्न में भी प्रीति नहीं रखते और न किसी से संभाषण ही करते अर्थात् शब्दरहित हो जाते हैं। खान-पानादिक भी वह इसी कारण से नहीं करते अर्थात् खान-पानादि गुणों से रहित हैं और उसी मायामयी मूर्ति के स्मरण में लोक-लज्जा से बहिर्मुख हो गए हैं, यानी रूप व गुण से वंचित अद्यापि निराकार नाम धारण किए हैं सो सत्य ही उस मन-मोहिनी की डीठि मनमोहन प्यारे पर ऐसी लगी है कि उसकी चाह में वे चकित से रह गए हैं, दीठ-दृष्टि व टोना।