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छंद 154 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(स्तंभहाव अथवा जड़ता संचारीभाव-वर्णन)

आज बरसाने की नबेली अलबेली बनीं, पावन चरित बलि-बामन तयारी मैं।
लै-लै कर लेखनी लगावन लगीं हीं रंग, आँनद-उँमग तैं सबीह न्यारी-न्यारी मैं॥
ताही समैं बाँसुरी सुनाई कहूँ कान्ह टेरि, ‘द्विजदेव’ की सौं या अनंद अधिकारी मैं।
चित्र लिखिवे की कौन चरचा चलावै जब, चित्र की लिखी सी भईं सारी चित्रसारी मैं॥

भावार्थ: एक सखी दूसरी से विस्मित हो कहती है कि आज बरसाने की गोपियाँ एकत्रित होकर जमघट के कारण दीपमालिका के उत्सव में अनेक रंग-बिरंगे चित्र दीवालों पर बनाने लगीं और अनेक लेखनियों से अनेक प्रकार के रंग लगा रही थीं, उसी समय मनमोहन श्रीकृष्णचंद्र ने बाँसुरी में अनेक गोपियों का नाम ले-लेकर (उसे) बजाया, जिसको सुनकर आनंद की अधिकता से वे सब स्वयं जड़ीभूत होकर चित्रसारी में चित्रवत् जैसी-की-तैसी रह गईं। अब आगे उनके चित्र लिखने की क्या वार्त्ता रही।