छंद 156 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(उद्दीपन विभाव-वर्णन)
बूझैं हूँ न सूझत सुघाट-बाट-जल-थल, बिनसी सकल मरिजादा सब ठाम की।
‘द्विजदेव’ देहरी के बाहर धरत पग, फेरि सुधि करत न धाम की, न गाम की॥
बूड़ति अथाहैं, कुल-धरम निवाहै कौंन, बावरी! बिलोकि यह उकति मुदाम की।
पास-अँध्यारी हुती ऐसिऐ डरारी तापैं, आठौं जाम रस-बरसनि घनस्याम की॥
भावार्थ: उस अँधियारी में विचार करते भी घाटन्-बाट और जल-थल नहीं सूझता, इससे कि सब स्थलों के जलमय होने से उनकी मर्यादा या सीमा मिट गई है और जो चौखट के बाहर पैर धरता अर्थात् विदेश जाता है तो उसे अपने स्थान और गाँव के पलटने की सुधि ही जाती रहती है। जब कोई अथाह जल में डूबता है तो कुल-मर्यादा के निर्वाह की कैसे चिंता कर सकता है। हे बावली! तू क्या इस विचित्र उक्ति पर ध्यान नहीं देती कि पावस की तो वेसे ही भयावनी रात हुआ करती है, तथापि घनश्याम (काले बादल व कृष्ण) की निरंतर रस (जल व प्रीति) की वर्षा है, तब उसकी दशा क्या कही जाए।