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छंद 163 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(प्रौढ़ा प्रोषितपतिका-वर्णन)

फूले घने तरु-जाल बिलोकि, हुते कछु सूधे सुभाइ ससे री।
आगि-सी लागी पलासन देखि, तऊ सौं कहूँ भागि बचे री॥
छूटे सँचान से ए अब तौ, ‘द्विजदेव’ चहूँ-दिसि कोकिल बैरी।
ह्वै है कहा सजनी! अब धौं, बचिहैं केहि भाँति-सौं प्रान-पखेरी॥

भावार्थ: विरहिणी नायिका अपने जीवन से निराश होकर कहती है कि हे सखी! कुसुमित तरु-जाल (वृक्ष समूह) को देखकर स्वभावतः ‘प्राण-पक्षी’ सहमे हुए थे, पश्चात् पुष्पित पलास वृक्षों को रागमय देख वन में आग लगने के भ्रम से उड़ भागे; जब आकाश में बाज सरीखे कोकिल भी उड़ते-फिरते हैं तो अब क्या होगा? और प्राण-पक्षी कैसे बचेंगे? क्योंकि तीन ही स्थान पक्षियों के रहने के हैं, पहला-स्थल, दूसरा-वृक्ष, तीसरा-अंतरिक्ष, सो तीनों क्रमशः वैरियों (शत्रु) से घिर गए हैं। इस सवैया के ‘जाल’ शब्द में ‘अभिधामूलक व्यंग्य’ है, जाल के अर्थ हैं-समूह व पक्षियों के पकड़ने का फंदा।