छंद 164 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(उन्माद दशा-वर्णन)
ऊपर ही कछु राग लपेटे, अहो! उर-अंतर के अति कारे।
त्यौं ‘द्विजदेव’ जू सूधे सुभाइ, सदाँ बिकसौ कछु लातन-मारे॥
आप सौं औ अति-नीचन सौं, कहौ भेद कहा है बिचार-बिचारे।
जीवन-मूरि बताइ कैं बेगि, जु सोक असोक! हरौ न हमारे॥
भावार्थ: हे अशोक! उस जीवन-मूरि (प्राणनाथ अथवा जीवनमूल औषध) का पता शीघ्र न बताकर तुम जो हमारे शोक को दूर नहीं करते तो व्यर्थ ही तुम्हारा नाम लोक में अशोक (अर्थात् शोकरहित अथवा शोकापहारी) प्रसिद्ध है और (यदि नहीं बताते) तुम ही बताओ कि तुममें और अत्यंत नीच जनों में क्या अंतराल है, जैसे नीच जन ऊपर से अनुराग प्रकट कर अंत में हृदय की कालिमा दिखाते हैं, वैसे ही तुम्हारे ऊपर के पुष्प तो रागमय हैं, किंतु शाखादिक व शरीर कालिमायुक्त है और जैसे नीचजन पदाघात से ठीक रहते हैं वैसे ही तुम भी चरण प्रहार से विकसित होते हो। यह कवि-कुल कल्पना है कि अशोक वृक्ष युवतियों के चरण प्रहार से कुसुमित होता है।