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छंद 169 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(मध्या खंडिता नायिका-वर्णन)

अति चंचल-चित्तन की चहुँघाँ, रहैं नित्त परोसिनैं ताई परी।
यह बात सयाने जो भाँखि गए, हम कौं वह आज दिखाई परी॥
बिष-काजर लीलिवे मैं तो अली! इन नैनन हीं अकुलाई परी।
सखि! कौंमल-चित्त-चकोरन पैं, यह नाँहक हाइ! तवाई परी॥

भावार्थ: मध्या खंडिता नायिका पति को सुना अन्य सन्निधि व्यंग्य के ब्याज से सखी से कहती है कि यह जो चतुर लोग भाखि (कह गए) हैं कि ‘दुष्ट पड़ोसियों का पाप अपने को खाता है’ सो यथार्थ है। देखो, मैंने चित्त में ठान लिया था कि प्यारे का सकलंक ‘मुख’ कदापि अवलोकन न करूँगी, परंतु इन चंचल व कुटिल नेत्रों की गति के कारण मैंने देखा कि ये तो चित्त के सन्निकटवासी ही हैं, इनको क्या? किंतु दुःख तो चित्त ही को भोगना पड़ा।