छंद 170 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(प्रौढ़ा प्रवत्स्यत्पतिका नायिका-वर्णन)
करिवौई तुम्हैं वह बीस-बिसैं, हित जैसौ कछूक अकूर करौ।
‘द्विजदेव’ जू तातैं बिचारि हिऐं, मन के भ्रम-भायन दूर करौ॥
कहते-सुनते जो भयौ हमसौं, वह माँफ हमारौ कसूर करौ।
इत प्रान पयान करैं न करैं, तुम कान्ह! पयान जरूरी करौ॥
भावार्थ: कोई उत्तमा प्रवत्स्यत्पतिका नायिका श्रीकृष्ण के मथुरा जाते समय निषेध-वचन इसलिए नहीं कहती कि एक तो रोकने से प्रभुता प्रकट होती है, दूसरे रोकना अशुभसूचक भी है, जो ‘पातिव्रत धर्म’ के विरुद्ध है। अतः कहती है कि जो कार्य कर्तव्य है उसको शीघ्र ही करना चाहिए अर्थात् जैसे हमारे हितेच्छुक ‘अक्रूर’ कहते हैं (विपरीत लक्षण से हितेच्छुक का अर्थ अनहित चाहनेवाले) अब विशेष कर्तव्याकर्तव्य के भ्रम को हृदय से दूर (कर वैसा ही) कीजिए और अब तक एकत्रित रहने से यदि कहा-सुनी में कुछ अपराध हुआ हो तो (उसे) क्षमा कीजिएगा। यहाँ मेरे प्राण रहें या न रहें परंतु आप यात्रा अवश्य कीजिए; क्योंकि ऐसा न हो कि इसी सोच-विचार में (आपका) मुहूर्त काल व्यतीत हो जाए।