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छंद 172 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(वंशी प्रति नायिका की सखी से उक्ति-वर्णन)

खोइ कैं सुबंस बसी ऐसैंहीं कछूक दिन, मारी फिरी ऐसैहीं कछूक दिन नाँगी री।
छेद करवाइ निज-छाती मैं छत-सात गई, कारीगर-हाथन अनेक-बिधि दागी री॥
ताहि मनमोहन किते दिन तैं राखी संग, ‘द्विजदेव’ की सौं ह्वै सुराग-अनुरागी री।
ढीठ ह्वै-ह्वै क्यौं न ब्रज-बालनि सतावै साई, बाँसुरी सुन्यौं मैं अब हरि-मुख लागी री॥

भावार्थ: कोई पूर्वानुरागिणी नायिका भगवान् की वंशी सुन विमोहित हो उसकी समता स्वैरिणी (कुलटा) से यों करती है कि जैसे वे उत्तम वंश (कुल) को मिटा देती हैं वैसे ही यह भी उत्तम वंश (बाँस के वृक्ष का) अपने हेतु समूलोच्छेद कराती है। जैसे वे इधर-उधर मारी-मारी फिरती हैं वैसे ही बहुत दिनों तक यह भी इतस्ततः पड़ी सूखती रही। जैसे वे नंगी (निर्लज्ज, मर्यादारहित) होती हैं वैसे ही यह भी बहुत दिनों तक नंगी (रंग-रोगन के बिना) रहती है (पड़ी रही)। जैसे उन सबकी अनेक दुर्गति या ताड़नादिक की जाती है वैसे ही इसके शरीर को भी अनेक छिद्रों के द्वारा ताड़ना दी जाती है। जैसे चतुरों के परुष वचनों से उनका हृदय संतप्त किया जाता है वैसे ही यह भी कारीगरों के द्वारा विविध प्रकार के संतप्त होकर चित्रित की जाती है। उसी वंशी को भगवान् ‘वंशीधर’ ने धारण किया। इसी कारण से वह अत्यंत धृष्ट हो व्रज बालाओं को सताती है क्योंकि जब नीच लोग किसी कारण से बड़ों के मुँह लगे हो जाते हैं तो अनेक उत्पात किया करते हैं।