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छंद 176 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(प्रौढ़ा प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

भूले-भूले भौंर बन भाँवरैं भरैंगे चहूँ, फूलि-फूलि किंसुक जके-से रहि जाइ है।
‘द्विजदेव’ की सौं वह कूँजनि बिसारि कूर, कोकिल कलंकी ठौर-ठौर पछिताइ है॥
आवत बसंत के न ऐहैं जौ पैं स्याम तो पैं, बावरी! बलाइ सौं हमारैं हूँ उपाइ है।
पी हैं पहिलेई तैं हलाहल मँगाइ या, कलानिधि की एकौ कला चलन न पाइ है॥

भावार्थ: हे सखी! यदि वसंतागमन में प्राणप्रिय अर्थात् श्री ‘कृष्णचंद्र’ न आए, तो भ्रमर भी भूल-भूलकर अर्थात् व्यर्थ ही चारों ओर वन में घूमते ही रहेंगे और फ्लाश भी फूल-फूलकर स्तंभित ही से ही जाएँगे, कलंकी (काले) कोकिल अपना बोलना छोड़कर स्थान-स्थान पर पछताएँगी, क्योंकि मैंने यह उपाय सोचा है कि इसके पूर्व ही विष मँगाकर (मैं) पान कर लूँगी जिससे चंद्रमा की एक भी कला (किरण व अत्याचार) मुझपर न चल पावेगी।