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छंद 180 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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मत्तगयंद सवैया
(स्वप्न दर्शन-वर्णन)
सोवत आज सखी! सपने, ‘द्विजदेव’ जु आइ मिले बनमाली।
जौ लौं उठी मिलिवे कहँ धाइ, सुहाइ भुजान भुजान पैं घाली॥
बोलि उठे ए पपीगन तौ लगि, पीउ कहाँ? कहि कूर कुचाली।
संपत्ति-सी सपने की भई, मिलिवौ ब्रजराज कौ आज कौ आली!॥
भावार्थ: हे सखी! आज रात को सोते हुए स्वप्न में मुझे प्यारे मिले। परंतु हा! ज्योंही मैं अत्यंत उत्कंठापूर्वक उन्हें गलबाहीं डालकर आलिंगन करने के लिए दौड़ी त्योंही इन कुटिल पापी पपीहों के समूह ने ‘पी कहाँ’...‘पी कहाँ?’ की पुकार मचा मुझे जगा दिया, अतः आज प्यारे का मिलन स्वप्न की संपदा के समान हुआ। जैसे कोई रंक स्वप्न में संपन्न होता है और पुनः जागने पर वैसा ही रंग-का-रंक रह जाता है, वही दशा मेरी भी हुई।