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छंद 194 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(मुग्धा वासकसज्जा नायिका-वर्णन)

तन राते-अभूषन साजि सबै, कच राती-कलीन सौं बीनि रही।
‘द्विजदेव’ जू तैसिऐ केस-छटा, कछु ओढ़नी-ऊपर भींनि रही॥
लहिहौ केहि भाँति सौं लालन! आज, न जोग तिहारे अधीनि रही।
दुरि दीपि-सिखान मैं बैठी सु तौ, छबि दीप-सिखान की छीनि रही॥

भावार्थ: कोई अंतरंगिणी सखी ‘श्री कृष्णचंद्र’ को केलि-मंदिर में आते देख ‘परिहास’ से कहतीहै कि हे लाल! उस ‘मुग्धा वासकशय्या’ का संयोग तो आज आपके अधीन नहीं रहा, क्योंकि उसने आपको छलने के निमित्त ऐसा वेश बनाया है कि दीपावली में सर्वथा सम्मिलित हो गई है, (वह) जिससे किंचित्मात्र भी नहीं लक्षित होती है और उसी पंक्ति में छिप बैठी है अर्थात् माणिकमय आभूषण संपूर्ण शरीर में धारण किए है तथा रक्त पुष्प की कलियों से केशपाश को सुसज्जित किया है, इस कारण ओढ़नी के ऊपर से चमकते हुए आभूषणों और तदुपरि काली कवरी की छटा ठीक वैसी ही मालूम होती है जैसे दीपशिखा (दीये की टेम) अर्थात् नीचे लाल और क्रमशः द्युति कम होते-होते ऊपर कज्जल के समान है।