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छंद 19 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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भुजंगप्रयात

कहूँ कोकिलाली, कहूँ कै पुकारैं। चकोरौ कहूँ सब्द ऊँचै उचारैं॥
कहूँ चातकी सातकी-भाव लीन्हैं। जकी-सी, चकी-सी, चहूँ चित्त दीन्हैं॥

भावार्थ: किसी स्थान पर कोकिल पुंज, ‘कहूँ-कहूँ’ शब्द का पंचम स्वर में आलाप करते सवारी के साथ हैं। कहीं चकोर उच्च स्वर में पुकार कर रहे हैं, कहीं चातकी समूह ने सात्त्विक धर्मावलंबन कर मौनव्रत धारण किया है और जके-चके से चारों ओर देख रहे हैं।