छंद 206 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(मदसंचारी हाव-वर्णन)
बृंदाबन-कुंजन मैं बंसीबट-छाँह-तरैं, कौतुक अनौंखौ एक आज लखि आई मैं।
लाग्यौ हुतो हाट एक मदन-धनी कौ जहाँ, गोपिन कौ बृंद रह्यौ झूँमि चहुँघाई मैं॥
‘द्विजदेव’ सौदा की न रीति कछु भाँखी जाइ, ह्वै रही जु नैन-उनमत्त की दिखाई मैं।
लै-लै कछु रूप मनमोहन सौं बीर! वे अहीरिनैं गँवारी देति हीरन-बटाई मैं॥
भावार्थ: हे सखी! एक अद्भुत व्यवस्था मैं आज वृंदावनांतर्गत ‘वंशीवट’ की सघन छाया में देख आई हूँ, वह यह है कि कामदेव धनी (साहूकार) का हाट (बाजार) लगा हुआ था और वहाँ गोपियों का वृंद चारों ओर से आ, लेन-देन के अर्थ से झुका पड़ता था तथा वहाँ उन्मत्त नेत्रों के द्वारा सौदा की देखा-देखी (पण्य-व्यवहार और उन्माद) की रीति कुछ कही नहीं जाती कि वे गँवारी गोपीगण मनमोहन दूकानदार से रूप (स्वरूप व चाँदी) ले-लेकर बदले में हीरन (हृदय का समूह व हीरामणि का समूह) दे रही हैं अर्थात् हीरा देकर चाँदी खरीदती हैं।