छंद 214 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(उद्धव-प्रति गोपी-वाक्य-कथन)
लावौ हमैं भोग कै सिखावौ कछु जोग-कला, लीन्हैं अंगराग कै परागन घने रहौ।
बिनती इतीक पैं हमारी प्रिय-पीतम सौं, कहिवे कौं ऊधौ! उर आपने गने रहौ॥
अब उर-अंतर इतीऐ अभिलाष रही, बसहु जहाँ ई-तहाँ आँनद-सने रहौ।
याही तैं हमारे सुख पगन लगैगी तुम, लगन लगैहूँ पिय मगन बने रहौ॥
भावार्थ: हे उद्धव! हमारे हेतु भोग (सुख भोग) का उद्योग करो व योग की शिक्षा दो, सुख-भोगार्थ अंगरागादिक का उपचार अथवा रोग-साधनार्थ धूलि, भस्मादि का व्यवहार समीचीन समझो। हम सब हतभागिनी दोनों में तत्पर हैं किंतु यह विनती अपने हृदय में अवश्य स्मरण रख हमारे प्रियतम से यह संदेश कहना कि अब हम सबका हृदय समस्त कामनाओं से शून्य होकर केवल एक यही अभिलाषा रखता है और यदि ईश्वर उसे पूर्ण करें तो हम उतने ही से ऐसी आनंदित होंगी कि सुख-समाज हमारे पग-पग पर चरणों से लगा रहेगा, यह इच्छा यह है कि तुम (अन्य से) प्रेम लगाने पर भी प्रसन्न रहो, क्योंकि हमारा यह अनुभव है कि आपसे प्रीति लगाकर हम सबने केवल दुःख ही पाया है।