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छंद 216 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(स्वप्न दर्शन-वर्णन)

काहू-काहू भाँति राति लागी ती पलक तहाँ, सपने मैं आइ केलि-रीति उन ठानी री।
आप दुरे जाइ मेरे नैनन-मुँदाइ कछू, हौं हूँ बजमारी ढूँढ़िवे कौं अकुलानी री॥
ए री मेरी आली! या निराली करता की गति, ‘द्विजदेव’ नैंकहू न परति पिछानी री।
जौ लौं उठि आपनौं पथिक-पिय ढूँढ़ौं तौ लौं, हाइ! इन आँखिन तैं नींद हि हिरानी री॥

भावार्थ: हे सखी! रात को जो किसी प्रकार पलक लगी भी तो स्वप्न में नायक ने कुछ कौतुक की रीति आरंभ की, मेरे नेत्रों को मुँदाकर आप कहीं छिप बैठे और मैं भी उनके ढूँढ़ने के अर्थ व्याकुल हुई। परंतु विधाता की विचित्र ही गति है, कुछ समझ में नहीं आती कि जब तक मैं अपने विदेशवासी प्रियतम को ढूँढ़ पाऊँ तब तक इन निगोड़े नैनों से नींद ही जाती रही।