छंद 227 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(विभ्रमहाव-वर्णन)
ओढ़नी तौ वो बिछावै कहूँ, कहूँ और हीं ठौर पैं बैठैं कन्हाई।
पाँइ के धोखैं पसारैं भुजा, लकुटी वह धोवति सीस नवाई॥
आगत-स्वागत के बदलैं, ‘द्विजदेव’ दुहूँ दिसि होति ठगाई।
देखत हीं अलि! आज बनैं, नए पाहुँन और नई पहुँनाई॥
भावार्थ: भगवान् का वृषभानु-गृह में आतिथ्य देख एक सखी दूसरी सखी से ‘विभ्रमहाव’ का वर्णन करती है कि देखो, वृषभानु कुमारी वृंदावनविहारी को देख आसन के बदले ओढ़नी बिछाती है और वे उसे न देख भूमि ही को सुखद आस्तरण समझ बैठ जाते हैं, जब वह चरण धोने को हाथ बढ़ाती हैं तो ये भुजा उठा मिलने को उद्यत हो जाते हैं और प्यारी वृषभानुजा उसे भी न देख प्रेममग्न होकर सिर झुकाए करस्थ लकुटी (टेढ़ी-मेढ़ी छड़ी) को चरण के बदले धो चलती है, शिष्टाचार के बदले दोनों ओर से ठगहारी हो रही है। हे सखी! आज की यह लीला देखते ही बनती है। जैसे वे नवीन अतिथि आए हैं वैसा ही विचित्र आतिथ्य भी हो रहा है।