छंद 228 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(कलहांतरिता नायिका-वर्णन)
बोलि हारे कोकिल, बुलाइ हारे केकी-गन, सिखै हारीं सखीं सब जुगति नई-नई।
‘द्विजदेव’ की सौं लाज बैरिन-कुसंग इन, अंगन हीं आपने अनीति इतनी ठई॥
हाइ! इन कुंजन तैं पलटि पधारे स्याम, देखन न पाई वह मूरति सुधामई।
आवन-समे मैं दुख-दाइनि भई री लाज! चलन-समे मैं चल पलन दगा दई॥
भावार्थ: रे अविवेकी मन! जब कोकिल समूह बोल हारे एवं मयूरवृंद उत्तेजना कर बुला हारे और सखीगण मानमोचन के उपायों की शिक्षा दे हारीं तब तो मान के लाजवश तेरे अंगों ने ही इतनी अनीति ठानी कि कदापि मानमोचन न किया। हाय! वे स्वयं आ अनेक भाँति समझा निराश हो पलट गए और मैं कुसंगवश सुधामयी मूर्ति के दर्शन से भी वंचित रही अर्थात् आते समय तो अन्यायकारिणी लज्जा दुःखदायिनी हुई? यद्यपि मान मोचनोन्मुख हो रहा था तथापि उसके अनख की लज्जावश मैं अधोमुख हो बैठी रही और न बोली तथा जाते समय चंचल पलकों ने विश्वासघात किया अर्थात् बारंबार पलक भँजने से उन्हें पूर्णतया न देख सकी यानी अश्रुमुंचन से उस रूप को स्पष्ट न देख सकी।