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छंद 231 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(प्रवत्स्यत्पतिका नायिका-वर्णन)

एहो ब्रज-नागर बराइ ब्रज-बालनि, अलज-अँखियाँ मैं निठुराई क्यौं गहतु हौ।
हरे-भरे बिमल सुधा से सरबर माँहिँ संग मिसरी के बिष-घोरि उँमहतु हौ॥
हाइ! जदुराई कौंनैं गाँव की चलाई रीति, कौंनैं मुख, कौंनैं जीह बातन कहतु हौ।
कल न परत एक पल न बिलोकैं तब, छलन छलाइ अब चलन चँहतु हौ॥

भावार्थ: कोई प्रवत्स्यत्पतिका नायिका नायक से कहती है कि व्रजनागर! व्रजबालाओं से अलग हो निर्लज्ज नेत्रों में कठोरता क्यों धारण करते हो? लहलहाते पूर्ण स्वच्छ अमृत के-से सरोवर में मिसरी के साथ मानो विष घोलते की इच्छा करते हो। मैं बड़े खेद के साथ कहती हूँ कि हे यदुराय! यह किस गाँव की रीति आपने चलाई है और किस मुख और कौन जीभ से ये बातें आप कर रहे हो, भलायह तो विचारों कि जिसको एक पलमात्र भी देखे बिना नहीं पड़ती उसको ऐसे छलों से छलकर अब आप चला चाहते हो?