छंद 237 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)
बाँचति न कोऊ अब वैसिऐ रहति खाम, जुबती सकल जानि गईं गति याकी है।
झूँठ लिखिवे की उन्हैं उपजै न लाज कहूँ, जाइ कुबजा कैं बसे निलज तिया की है॥
दूसरी अबधि ‘द्विजदेव’ राधिका के आगैं, बाँचै कौंन नारि जौंन पौढ़-छतिया की है।
ऐसैंहीँ मुखागर कहौ-सो-कहौ ऊधौ! इहाँ, उठि गई ब्रज तैं प्रतीत पतिया की है॥
भावार्थ: हे उद्धवजी! आप मुख के अगार (वाचाल) हैं जो चाहें सो कहें किंतु व्रज से पत्रिकाओं पर प्रतीति करने की परिपाटी अब जाती रही, उसको कोई नहीं पढ़ता। वरन् वह लिफाफे में बंद ही पड़ी रहती है, क्योंकि सब व्रजवनिताओं पर उसका भेद विदित हो गया है कि पुनः कोई अवधि अपने आने की लिखी होगी। उन्हें तो मिथ्या वार्त्ता लिखने में अब लज्जा नहीं आती, यह लज्जाहीन कूबरी के सहवास का फल है। श्रीराधिका के समक्ष दूसरी अवधि के समाचार के सुनाने का साहस किस दृढ़हृदया नारी का हो सकता है अर्थात् किसीका नहीं।