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छंद 238 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका की उक्ति का वर्णन)

अब मति दै री काँन कान्ह की बसीठिन पैं, झूँठे-झूँठे प्रेम के पतौवन कौं फेरि दै।
उरझि रही ती जो अनेक पुरुखा तैं सोऊ, नाते की गिरह मूँदि नैननि निवेरि दै॥
मरन चँहत काहू छैल पैं छबीली कोऊ, हाथन-उरँचाइ ब्रज-बीथिन मैंटेरि दै।
नेह री कहाँ कौ, जरि खेह री भई तौ मेरी, देह री उठाइ वाकी देहरी पैं गेरि दै॥

भावार्थ: हे सखी! अब कृष्ण के झूठे संदेशों को श्रवण-गोचर न कर और मिथ्या प्रेम पत्रिका को भी फेर दे एवं जो स्नेह-परंपरा चली आती है उस संबंध की ग्रंथि को नेत्र बंद कर तोड़ दे तथा व्रज-बीथिकाओं में हाथ उठा हाँक देकर कह दे कि ‘कोई नागरी, नागर छैल पर प्राण दिया चाहती है’। प्रीति की रीति देख चुकी, अब नेह (स्नेह व तैल) तो रहा ही नहीं, प्राण की बत्ती जलाकर भस्म हो गई, रहा मृतक शरीर, सो उसे उठाकर उस नायक की देहली पर फेंक वहाँ की रज में मिला दे।