भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 249 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मत्तगयंद सवैया
(कवि-उक्ति-वर्णन)

चंद्रिका-सी कहि हास-छटा, जग नाँहक हीं उपहास करैहौ।
त्यौं ‘द्विजदेव’ जू नाँहक हीं, कहि कंज-दृगी नित वाहि लजैहौ॥
ऐसी अनौंखी-अनौंखी घनी, घनी बातैं बनाइ कहा फल पैहौ।
कै पिक-बैनी उड़ाइ हौ वाहि, मयंक-मुखी कै कलंक लगैहौ॥

भावार्थ: हे द्विजदेव! चाँदनी की समता श्रीराधिका की मृदु-मुसकान से देकर उनका उपहास क्यों कराते हो? क्योंकि चंद्रिका उदय से अस्तपर्यंत बिना न्यूनाधिक्य के एक प्रकार प्रकाशित रहती है और भगवती के ईषत् हास्य से उनका मुख समय-समय पर खुलता और बंद होता रहता है। यदि चंद्रिका की समानता मानी जाए तो समस्त रात्रि दंतावली निकली ही रहनी चाहिए (जिसका दूसरा नाम खिस्सू, दंतकढ़ी, खिसकढ़ी आदि है), जो बहुत ही निंदनीय है, तथापि श्रीमती स्त्रियों के लिए बहुत ही उपहासात्मक है।

फिर देखो, कंज (कमल) ऐसे लोचन कहके क्या उसको लज्जित करोगे? क्योंकि यदि सब प्रकार से कमल कीसमता की जाए तो दिवावसान में कमल संकुचित होता है, वैसे ही उनके नेत्रों को भी मुद्रित होना मानना पड़ेगा; तो क्या वे नेत्र किसी व्याधि से युक्त हैं जो संध्या होते ही मुद्रित होते हैं? अथवा कंज (कंज फल विशेष जिसको करंज और कंजा भी कहते हैं) की उपमा देने से या तो माड़ा छाई हुई आँखें व कम-से-कम ‘कंजी आँखें’ (जैसे अँग्रेजों की होती हैं) समझी जाएँगी, ऐसी उपमा देना उपमेय को सर्वथा लज्जित करना है। सामुद्रिक के अनुसार एतद्देशियों का विश्वास है कि एतद्देशीय ‘कंजी आँखवाले’ नितांत दुष्ट,चालाक, विश्वासघातकादि दुर्गुणों से युक्त हुआ करते हैं। यथा-

”सौ में सूर सहस में काना, सवा लाख में ऐंचाताना।
ऐंचाताना करै पुकार, कंजे से रहियो हुसियार॥“

फिर ‘कोलिवयनी’ कहकर उसे उड़ाया चाहते हो, क्योंकि कोकिला तो उड़ता है, अब क्या उसे भी उड़ाओगे (उड़ाना मिथ्या दोषारोपण को कहते हैं)? योंही मयंकमुखी कहके क्या उस शुद्ध मुख में कालिमा लगाकर कलंकित किया चाहते हो? क्योंकि पंक कीचड़ को कहते हैं और पंकज इसीसे पैदा होता है, अतः कीचड़ जिसके अंग में भरा हो वह मयंक (कलंक सहित अथवा कीचड़युक्त, गंदा) हुआ, अतः ऐसी-ऐसी बहुत सी विचित्र बातें बना-बनाकर कहने से क्या फल पाओगे!