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छंद 24 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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नाराच

रचे बितान से घने, निकुंज-पुंज सोहईं। प्रभा-निहारि हारि, हारि, चित्त-बृत्ति मोहईं॥
समीर मंद मंद डोलि, द्वार पैं निकुंज के। पसारि पाँवड़े रहे, चहूँ प्रसून-पुंज के॥

भावार्थ: वसंत के स्वागत-निमित्त अनेक कुंज, ऐसी सघन पत्रावलियों से आच्छादित हैं मानों स्थान-स्थान पर वितान (शामियाने) तने हुए हैं, जिनकी शोभा देख चित्त-वृत्ति मोहित होती है। उन वितानों के सामने मंद मारुत, झरे हुए पुष्प-समूह को ऐसा फैला रहा है मानो पाँवड़े बिछा रहा है।