छंद 254 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(नेत्र-वर्णन)
चख रूखे लखैं पग-पारत हीं, कर सौं हरि मीन धरे दरसैं।
‘द्विजदेव’ जू कंजन की पँखुरी तौ परी तरवा के तरे दरसैं॥
लहि हैं उपमा तिन नैनन की, जे सदाँ छबि-बृंद भरे दरसैं।
मिसि नीलम-नूपुर के अलि-पुंज, अजौं तिय-पाँइ परे दरसैं॥
भावार्थ: सरस्वती कहती हैं कि हे द्विजदेव जू! नेत्रों के विषय में हमको इतना ही वक्तव्य है कि राधा महारानी के नेत्रों को रूखे अर्थात् मान-समय में देखकर कृष्णचंद्र मान-मोचनार्थ पग-पलोटते समय ऐसे दीखते हैं कि मानो मत्स्य को श्री चरणों पर किराए हुए हैं, इस कारण कि उसने ‘राधिका’ जी के नयनों की समता की इच्छा की। मत्स्य का चरणों पर गिराना इस कारण कहा कि भगवान ‘कृष्णचंद्र’ के करतल में मीन रेखा के चिह्न का वर्णन किया गया है, दूसरे यह कि कान पकड़कर चरण स्पर्श करते समय मकर-कुंडल भी चरणों का स्पर्श करते हैं और कमल की पँखड़ी की उपमा पग-तल से दी जाती है तो ये दोनों नेत्रों के प्रसिद्ध उपमान अर्थात् मीन और कमल-दल तो व्यर्थ हुए, क्योंकि ये जो चरणसेवी हैं, वे उत्तमांग नेत्रों की समता की योग्यता को कैसे प्राप्त होंगे? अब रहे भ्रमर, इनको भी कवि नेत्रोपमान में वर्णन करते हैं, सो विचार से देखो कि अलि-समूह नीलमणि के ब्याज से नूपुर में लगे हुए महारानी के चरणों में सदैव पड़े रहते हैं तो इनकी भी वही गति हुई, अब तुम्हीं विचार करो कि सदा शोभा-समूह से परिपूरित नयनों की समता सब कैसे पा सकते हैं।