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छंद 257 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(श्रवण-वर्णन)

बसि बर्ष-हजार पयोनिधि मैं, बहु-भाँतिन सीति की भीति सही।
‘द्विजदेव’ जू ज्यौं चित-चाहि घनी, सत-संगति मुक्तनहूँ की लही॥
इन भाँतिन कीन्हौं सबै तप-जाल, सुरीति कछूक न बाकी रही।
अजहूँ लौं इतेपर सीप सबै, उन ‘कानन’ की समता न लही॥

भावार्थ: इसी प्रकार वाणी (सरस्वती) कानों के विषय में कवि से कहती है कि कविजन ‘कर्ण’ की सर्वोत्कृष्ट उपमा ‘सीप’ से देते हैं, सो उसकी दशा यह है कि जिसने सहस्रों वर्ष तपवश, जल-शयन किया और फिर कानों की समता के अर्थ मुक्तन, (मुक्त जनसमूह व मोतीगण) अर्थात् मुकुतों का बहुत दिनों तक सत्संग किया (मुक्ता और सीप का संग प्रसिद्ध ही है)। इसी तरह बहुत से तप करते-करते भी अद्यावधि उन अर्थात् राधारानी के कानों की समता को न तोल।