छंद 260 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(ठोढ़ी और दंत-वर्णन)
लखि ठोढ़ी रसाल रसालन कौ फल पीरौ परौ लरकौ तौ कहा।
‘द्विजदेव’ जू आछे कटाच्छ चितै, छन-जौंन्ह हियौ थरकौ तौ कहा॥
दुति-दंतन की इक बार लखैं, उर-दाड़िम कौ दरकौ तौ कहा।
अँग-अँग की ऐसी प्रभा-अवलोकि, अनंग फिरै फरकौ तौ कहा॥
भावार्थ: भगवती गिरा कवि से कहती है कि यदि ‘राधारानी’ की मनोहर ‘ठोढ़ी’ को देख रसाल (आम्रफल) पीला पड़के लटक पड़ा तो इसमें क्या आश्चर्य है, क्योंकि उत्तमजन अपमानित होने से लज्जा को प्राप्त होते ही हैं, लज्जित होने से विवर्णता होती ही है और लज्जावश मुख लटकाकर सिर झुका ही लेना पड़ता है एवं कटाक्ष की चंचलता को देख हार मान यदि विद्युत् प्रभा का हृदय कंपित हुआ सो भी ठीक ही है, क्योंकि पूर्व कथित कारण इसमें भी है। वैसे ही ‘दंतावली’ की चमक-दमक को देखकर यदि उसके उपमान दाडिम-फल का हृदय फट गया तो भी क्या आश्चर्य है, बहुत अनादर पाने से छाती फट जाना यह लोकोक्ति है, किंतु यह बहुधा देखा गया है कि बहुत दुःख के सहन करने से हृदय में क्षयी रोगादिक हो जाते हैं और उसके द्वारा कलेजे में ‘व्रण’ (घाव) हो जाता है, अतः जो उन आलौकिक अंगों की कांति को देखकर अनंग अर्थात् काम फरकता फिरता है तो क्या आश्चर्य है क्योंकि दुष्टजनों की यह प्रकृति है कि दूसरे का विभव देख मन में डाह कर इतस्ततः नाचते-फिरते हैं। अथवा काम यह समझकर कहता फिरता है कि उत्तम हुआ कि हम अंगरहित हैं, इससे हमें अपमानित न होना पड़ा। पके आम्रफल का पीला पड़के लटकना, बिजली का कंपित होना, दाडिम-फल का पकने पर फट जाना, कामवश होने पर संपूर्ण अंगों में उसकी फुरेरी मालूम होना, ये स्वाभाविक ही धर्म है, जिनको कवि ने अपनी उक्ति के बल से ‘प्रतीकालंकार’ से उपमानों को अनादृत किया।