छंद 265 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(बाहु-वर्णन)
मन बापुरौ कौंन दसा लहि है, सुनिकैं नित ही कौ उँमाह दई।
केहि-भौंन समाइ है जाइ अहो! दृग-पंथिन की यह आह दई॥
‘द्विजदेव’ जू काहू के जीबहू कौ, अब का बिधि ह्वैहै निबाह दई।
यह कौंन धौं बात बिचारि बली, बिधि नैं चित्त-चोरन बाँह दई॥
भावार्थ: हे द्विजदेव! बापुरे (बेचारे) मन की क्या दशा होगी और नैनरूपी पथिकों की आह (कल्पना) किस स्थान में समाएगी? नेत्रों से पथिक की उपमा प्रायः कवि दिया करते हैं, क्योंकि नेत्र चला करते हैं, अतः किसी पथिक के जीव का निर्वाह कैसे होगा? बलवान् विधाता ने क्या समझकर उस मनोहारिणी की बाहु दी (बाँह-भुजा व शरण देना) अर्थात् पथिक के चित्त के भाररूप चोर, बदकार, डाकू, ऐसे कुकर्मियों को कोई महान् व्यक्ति शरण देता है? यदि देगा तो उनके कर्मों में और भी उत्तेजना होगी। (बाहु शब्द में अभिधामूलक व्यंग्य है।)