छंद 269 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(पुनः कुच, रोमावली और नाभि का संयुक्त-वर्णन)
प्रथमैं लखि द्वै-गिरि ऊँचे घने, फिरि जातैं बन्यौं न सम्हातैं बन्यौं।
पुनि आगैं लख्यौ तौ लखी इक नगिनि ता डर तैं डरपातैं बन्यौं॥
बढ़ि आगैं हीँ भौंर-गँभीर लखैं, ‘द्विजदेव’ हिऐं सकुचातैं बन्यौं।
करतूति-कितीक-कितीक करी, पैं बिरंचिहिँ पीठि दै जातैं बन्यौं॥
भावार्थ: रीनागेश्वरी ने कहा कि हे द्विजदेव कवि! यह विषय सृष्टिकर्ता को भी गम्य नहीं हो सकता क्योंकि वे सब अंग-प्रत्यंग गोपनीय हैं। ब्रह्मा ने चाहा था कि छवि-वितरण करते समय गुप्त अंगों को भी यथोचित भाग देवें, किंतु उनको भी वह दृष्टिगोचर न हुए तो इतर मनुष्यों की क्या सामर्थ्य है जो उन अंगों के विषय में जिह्वा-चालन कर सकें। ब्रह्मा के दृष्टिपात करते हुए नयनों को कठिनता पड़ी, प्रथम ही उनको दो ऊँचे दृढ़ पर्वत-शृंग मिले जिन्हें देख नेत्रों से उल्लंघन करते ही न बना और न संकोचवश पीछे पलटते ही बना; यथा-तथा उनपर पहुँचे. तो उस उच्चता के अधोभाग में एक जहरीली नागिन दिखाई पड़ी जिससे वे भयभीत हुए। यद्यपि यह इच्छा की कि उसको बचाकर किसी प्रकार आगे चलेंगे, पर बड़ी भारी जल की ‘भौंर’ पड़ती हुई देख ब्रह्मा का साहस आगे जाने का न हुआ और पीठ दिखाकर निवृत्त ही होते बना। (इस सवैया में पृष्ठभाग का नाम (पीठ) भी कवि ने चतुराई से गिना दिया, इस कवित्त में भी रूपकातिशयोक्ति अलंकार है।)