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छंद 270 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मत्तगयंद सवैया
(जंघा, पद और पद-अंगुलियों का संयुक्त-वर्णन)

जग-मोहन जाग-बिधान के काज, सुजंघ मनौं जुग जूप ठए।
‘द्विजदेव’ दोऊ पग वा तिय के, अरबिंदनहूँ तैं अनूप ठए॥
जनु सोधि मनोभव आपने हीं कर सौं पद-आँगुरी रूप ठए।
रचि सुंदरता सिगरे जग के, उपमान बिरंचि बिरूप ठए॥

भावार्थ: हे कवि! इसके आगे युगल जंघ के विषय में (सुनो तो) कोर्ठ भी उपमान उसकी समता नहीं कर सकता? किंतु एक पवित्रता विषयक उपमान मैं तुमसे कहती हूँ कि उनको विधाता ने मानो विश्व-विमोहन-यज्ञ के युगल-यूप (यज्ञ के पवित्र स्तंभ) के रूप बनाया है और पग-तलों को कमल से भी अधिक उत्तम रचा है। पैरों की अंगुली की भी उपमा ठीक नहीं मिलती, अतएवं इतना ही समझो कि ‘महाराज काम’ ने स्वयं उन्हें सुधार दिया है। मैं तुमसे और विशेष क्या कहूँ, उस मोहनी मूर्ति कृष्ण-वल्लभा ‘राधिका’ की रचना के समय चतुरानन ने सिगरी (संपूर्ण) चातुरी भुला नख से शिख पर्यंत सर्वांग के उपमानों को अपमानित कर दिया।