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छंद 272 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(चाल-वर्णन)

चित-चाँहि अबूझ कहैं कितने, छबि-छीनी गयंदन की टटकी।
कवि केते कहैं निज बुद्धि उदै, यहि सीखी मरालन की मटकी॥
‘द्विजदेव’ जू ऐसे कुतरकन मैं, सबकी मति यौंही फिरै भटकी।
वह मंद चलै किन भोरी भटू! पग लाखन की अँखियाँ अटकी॥

भावार्थ: भगवती वीणापाणि कहती है कि अब तो मैं तुम्हें सब प्रकार सब विषयों में अपनी अनुमति देकर समझा चुकी, आशा है कि तुमने ‘नख-शिख वर्णन’ के पूर्व संकल्प का त्यागकर दिया होगा। उस महारानी की केवल एक गति बाकी रही, उसे भी सुनो, बहुतेरे अनभिज्ञ अपनी चित्त-चाहना से कहते हैं कि मंदगति इसने मत्त मातंगी को पराजित कर सीखा है एवं बहुतेरे कवि अपनी बुद्धि की तड़ापड़ी में पड़कर सूक्ष्म बुद्धि से विचारते हैं कि यह मटक इसने हंस से सीखी? हे द्विजदेव! ऐसे-ऐसे कुत्सित तर्कों में सब कवियों की बुद्धि अद्यावधि चक्कर खा रही है अर्थात् वे यह विचार नहीं करते कि इन अज्ञानी पशुओं से उपमा देना कहाँ तक उचित है। कहाँ ये पामर पशु और कहाँ सर्वसुंदरी-शिरोमणि कृष्णवल्लभा श्री ‘राधिका’ जी की चाल। मैंने जो कुछ इस ‘मंद गति’ का कारण अपनी बुद्धि के अनुसार ठहराया है वह यह है कि असंख्य भक्तजनों की दृष्टियों का अनिमेष जगजननी के चरणारविंदों में लगना है। प्रत्यक्ष है कि किसी थोड़े भार से भी सुकुमारियों की गति का अवरोध होता है जो जब करोड़ो की दृष्टि का बोझ श्री चरणों पर पड़े तब क्या गति मंद होना कुछ असंभव है? (इस सवैया में कवि ने बड़ी चतुराई से नख-शिख की पूर्ति के समय श्री नंदनंदनानंददायिनी ‘वृषभानु-नंदिनी’ के चरणों में दृष्टिपात कर नमस्कारात्मक उपसंहार किया है।)