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छंद 2 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी

गुंजरन लागीं भौंर-भौंरैं केलि-कुंजन मैं, क्वैलिया के मुख तैं कुहूँकनि कढ़ै लगी।
‘द्विजदेव’ तैसैं कछु गहब गुलाबन तैं, चहकि चहूँघाँ चटकाहट बढ़ै लगी॥
लाग्यौ सरसावन मनोज निज ओज रति, बिरही सतावन की बतियाँ गढ़ै लगी।
हौंन लागी प्रीति-रीति बहुरि नई सी नव-नेह उनई सी मति मोह सौं मढ़ै लगी॥

भावार्थ: उसी अवस्था में यह भी बोध हुआ कि भ्रमर-भीर कमनीय कुंजों में गुंजार करने लगी। कोकिल, जो अद्यावधि शीत के कारण मौनावलंबन किए हुए थे, ‘कुहू-कुहू’ शब्द का उच्चारण विस्फुट रूप से कर चले। योंही डहडही गुलाब-कलिकाओं के खिलने से चटकाहट का शब्द निकलने लगा, कामदेव अपने प्रभाव को बढ़ाने लगा और रतिरानी (काम की स्त्री) भी विरहिणी बालाओं को मानसिक तथा शारीरिक व्यथा देने की नई-नई युक्ति करने लगी और प्रीति-रीति के रंग-ढंग नए से होने लगे, मानो नवीन प्रेम से गरुआई हुई जनों की मति मोह से आवेष्टित हो चली।