छंद 3 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(वसंत-शोभा का अनुभव करते हुए जाग्रत् होने का वर्णन)
मेल्यौ उर आँनद अपार मैन सोवत हीं, पाइ सुधि सौरभ समीरन-मिलन की।
नेह के झकोरन हलाइ उर दीन्हौं, लखि सुखमा लवंग-लतिकान के हिलन की॥
स्वपन भयौ धौं किधौं साँची करतार! इमि, समुझात रीति लखि अंग-सिथिलन की।
खिलि गए लोचन हमारे इक बार सुनि, आहट गुलाबन के अखिल खिलन की॥
भावार्थ: अनंतर प्रति क्षण बढ़ती हुई शोभा का अनुभव करता, जाग्रतावस्था को इस प्रकार प्राप्त हुआ कि सुगंधि से समीर के संयोग का सुख समाचार पाकर मन्मथ ने मेरे हृदय को अपार आनंद से युक्त कर दिया और वायु से विकंपित लवंग-लतिकाओं की शोभा देखकर स्नेह के झकोरों से हृदय को हिला दिया। अब जो मैं अपने अंगों की शिथिलावस्था देख सोचने लगा कि हे विधाता! यह स्वप्न है या जाग्रतावस्था? इतने ही में गुलाब की कलियों के निरंतर खिलने की चटकाहट सुन मेरी आँखें एकाएक खिल गईं-खुल गईं।