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छंद 43 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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. रोला
(कलहांतरिता, धीरादि और खंडिता आदि का संक्षिप्त वर्णन)
रचि-रचि लीला-कलह, कबहुँ राधा रिस ठानैं।
हरि मनाइ जब चलत, तबै मन मैं दुख आनैं॥
और रूप-रचि कबहुँ, स्याम-सँग राधा बिहरैं।
ताहि जानि बृषभाँनु-सुता, दुख-ठाँनति हियरैं॥
भावार्थ: कबहुँ (कभी) कलह-लीला रचि ‘राधिका’ जी प्राणप्यारे से रिस ठानती हैं और कबहुँ अर्थात् कभी मनमोहन के मनाने पर न मान, पुनः पश्चात्ताप करतीं तथा कबहुँ (कभी) और रूप धारण कर राधा भगवान् के संग विहार करतीं पुनः वृषभानुजा रूप में दुःखित होती हैं; यह कलंक लगाकर कि तुमने अन्य स्त्री से संग किया है।