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छंद 45 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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रोला
(परकीया नायिकाओं का संक्षिप्त वर्णन)
रचि-रचि औंरैं रूप, कबहुँ अनुराग बढ़ावैं।
बिन हरि भेटैं बहरि, बहुत बिरहा-दुख पावैं॥
हरि-आवन-बन-जानि, कबहुँ भूषन-पट साजैं।
बेर भए तैं कबहुँ, ताप सौं सब अँग छाजैं॥
भावार्थ: कबहुँ (कभी-कभी) औरौं का रूप रचकर अनुराग को बढ़ाती हैं, फिर कृष्ण से मिले बिना बहुत दुःखित होती हैं। कबहुँ (कभी-कभी) वन से नटवर को आते जान भूषन-पट सुसज्जित करती हैं और कबहुँ (कभी-कभी) आने के समय में देरी होती देख संतापित होती हैं।