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छंद 57 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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दोहा
(आशीष पाकर कवि-प्रसन्नता-वर्णन)
आसिष पाइ, उपाइ-बिनु, लखि-भाँति अभिलाखि।
सफल कियौ जीबन मनौं, रंक पाइ सुर-साखि॥
भावार्थ: निरुद्यम अकस्मात् ऐसा वर पाकर अत्यंत अभिलाषित हुआ अर्थात् ऐसा प्रसन्न हुआ जैसे किसी दरिद्री को ‘कल्पवृक्ष’ की शाखा की छाया पाने से आनंद होता है।